नई दिल्ली, एजेंसी। केंद्र सरकार ने बंबई उच्च न्यायालय से कहा है कि अनिवार्य टीकाकरण पर कोई नीति नहीं बनी है। हालांकि केंद्र ने पीठ को संकेत दिया कि किसी खास नियमों के अभाव मेंए राज्य कोविड़19 वायरस के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत नियम बना सकता है। वहीं अपनी ओर से राज्य ने पीठ को सूचित किया कि उसने अधिनियम के तहत उचित प्रतिबंध लगाने वाले नियम बनाए हैं। राज्य ने कोर्ट से कहा कि उसने पूरी तरह से टीकाककण नहीं कराए हुए लोगों को लोकल ट्रेनों में यात्रा करनेए मल और सार्वजनिक स्थानों पर जाने पर प्रतिबंध लगाने के वास्ते नियम बनाए थे जिन्हें विधायिका द्वारा भी अप्रूव किया गया था
केंद्र और राज्य का ये जवाब एक जनहित याचिका यच्प्स्द्घ पर दिया गया। इस याचिका में राज्य सरकार के उस सर्कुलर को चुनौती दी गई थीए जिसमें पूरी तरह से टीकाकरण न कराने वाले लोगों को लोकल ट्रेनों में यात्रा करने और मल और सार्वजनिक स्थानों पर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। याचिका में कहा गया था कि यह उन लोगों के अधिकारों का उल्लंघन है जिन्होंने टीकाकरण नहीं कराना पसंद किया।
मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मकरंद कार्णिक की खंडपीठ कार्यकर्ता फिरोज मीठीबोरेवाला और योहन तेंगरा द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इस दौरान केंद्र सरकार के अतिरिक्त महाधिवक्ता अनिल सिंह द्वारा कोर्ट को सूचित किया गया कि महामारी को रोकने के लिए आपदा प्रबंधन अधिनियम यडीएमद्घ के तहत 2019 में एक राष्ट्रीय योजना बनाई गई थी। हालांकि महामारी के लिए कोई विशेष योजना नहीं बनाई गई थी। याचिकाकर्ताओं की इस दलील का जवाब देते हुए कि राज्य सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत महामारी के लिए मानक संचालन प्रक्रिया यएसओपीद्घ बनाकर केंद्र सरकार के दिशानिर्देशों का उल्लंघन किया हैए इस अनिल सिंह ने कहा कि उल्लंघन का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि केंद्र द्वारा कोई नीतिगत निर्णय नहीं लिया गया था जिसका राज्य सरकार ने उल्लंघन किया हो।
सिंह ने आगे कहा कि केंद्र ने कोई नीति या दिशानिर्देश नहीं बनाया है कि क्या टीकाकरण करना अनिवार्य या जरूरी है और इसे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दायर एक हलफनामे में भी बताया गया था। उन्होंने कहा कि केंद्र ने हालांकि कहा है कि यह बेहद जरूरी था कि बड़ी आबादी को कोविड़19 संक्रमण को रोकने के लिए टीका लगाया जाए। इसके बाद पीठ ने राज्य से जानना चाहा कि क्या राज्य द्वारा बनाए गए और लागू किए गए एसओपी को विधायिका द्वारा अप्रूव किया गया थाघ् इस पर वरिष्ठ वकील अनिल अंतूरकर ने सरकारी वकील प्रियभूषण काकड़े के साथ पीठ को सकारात्मक रूप से सूचित किया और कहा कि एसओपी की अवधि का उद्देश्य टीकात और गैऱटीकात लोगों के बीच भेदभाव करना नहीं थाए बल्कि लोगों के दोनों समूहों के जीवन को बचाना था।
अंतुरकर ने कहा, श्याचिकाकर्ताओं का यह तर्क कि टीकाकरण संक्रमण को फैलने से नहीं रोकता हैए गलत है। यहां तक घ्घ्कि अगर टीकाकरण वाले लोग संक्रमित हो जाते हैंए तो यह अस्पताल में भर्ती होने की आवश्यकता को कम कर देता है। हमारा प्रयास है कि अक्सीजन की कमी से लोगों की मौत न हो। हमें अन्य उपाय करना जारी रखना चाहिए।श् जवाब सुनने के बादए पीठ ने याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ताओं को राज्य सरकार की दलीलों के जवाब में अपनी प्रस्तुतियाँ देने का निर्देश दिया और जनहित याचिका की सुनवाई 7 फरवरी को स्थगित कर दी।